Saturday, November 1, 2008
जिन्ना, राज ठाकरे, तोगड़िया, शाहबुद्दीन जैसे लोग और धार्मिक ग्रन्थ.
क्षमा, अहिंसा, आपसी सद्भाव वग़ैरा वग़ैरा मानवीय संवेदना से उपजे भाव हैं. इन्हे सीखने या समझने के लिए किसी क़ुर'आन, वेद, गीता या बाईबल की ज़रूरत नहीं है. इन ग्रंथों की सार्थकता तब रही होगी जब ये ४५०० साल से लेकर १५०० साल पहले तक लिखे गये थे, आज नहीं है. कोई बच्चा पैदा होते ही इन निरर्थक ग्रंथों को नहीं पढ़ने लगता है. उसमे ये बीज बोए जाते हैं और वो धर्म के आधार पर स्वयं को अन्य धर्म अनुयायी बच्चों से पृथक समझने लगता है. इन सभी भावों के पालन करने का संस्कार हमें अपनी बुनियादी और इब्तिदाई परवरिश में मिलता है. इन 'मदरसों' और 'सरस्वती शिशु मंदिरों' के बारे में तो मुझे ख़ास इल्म नहीं है, पर इतना ज़रूर जानता हूँ कि किसी भी अन्य स्कूल में ये भावनाएँ इन अविकसित ग्रंथों के ज़रिए नहीं सिखाई जातीं, ना ही कोई माता पिता ऐसे संस्कार देना चाहते हैं. राज ठाकरे, विनय कटियार, सैय्यद शाहबुद्दीन, प्रवीण तोगड़िया और बुख़ारी जैसे लोगों में यही तुख़्मी (बीज संबंधित) ख़राबी है. यहाँ जिन्ना का नाम नहीं लूँगा. इन जाहिलों और जिन्ना में ज़मीन आसमान का फ़र्क़ है.
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प्रिय बन्धु, क्षमा कीजियेगा यह आप नहीं, आपके संस्कार बोल रहे हैं. जिन ग्रंथों की आपने चर्चा की है उनकी उपयोगिता और उपादेयता दोनों ही बनी रहेगी. अपरिपक्व और विवेक-शून्य लोग इन्हें समझ भी नहीं सकते. वे नाम जो आपने गिनाये हैं उनके पास इन ग्रंथों को समझने की दृष्टि ही नहीं थी. वे राजनीति की उपज हैं, इन ग्रंथों की नहीं. धर्म के बाह्याडम्बरों से राजनीति को छौंक-बघार कर उसके आस्वादन से मदमत्त लोग स्वयं भी दिशाविहीन हैं और दूसरों को भी पथ-भ्रष्ट करते हैं. वैसे आप कोई भी धारणा बनाने के लिए स्वतंत्र हैं.
ReplyDeleteयुग विमर्श द्वारा की टिपण्णी से मैं सहमत हूँ कि इन ग्रंथों की उपयोगिता और उपादेयता दोनों ही हमेशा बनी रहेगी. जो शिक्षा इन ग्रंथों में दी गई है उसकी हर मनुष्य को आवश्यकता है. जिन मां-बाप ने इस शिक्षा को अपने जीवन में उतार लिया है वह अपने बच्चों को सही शिक्षा देंगे. जो यह नहीं कर सके उनके बच्चों के भटक जाने की सम्भावना होती है, और अक्सर कुछ गलत लोग उन्हें दिशा-भ्रमित कर देते हैं. जो इन ग्रन्थों की शिक्षा को समझ गया वह कभी किसी को ग़लत बात नहीं सिखायेगा.
ReplyDeleteबंधुवर, यदि आप में संस्कृत, अरबी या हिब्र्यू में लिखे गए इन यातयाम (आउटडेटेड) साहित्य में इतनी आस्था है, तो क्यों नहीं उसके ज़रिये आगे आकर मुल्क में शान्ति स्थापित करने का प्रयत्न करते. तीनों ज़बानें और उनमें लिखे तथ्य आज के लिए निरर्थक हैं. आज उनकी उपयोगिता तो जाने दीजिये, उनके अस्तित्व में आने के वक़्त ही उन पर प्रश्न उठ गए थे, अगर आपको बुद्ध, अबू बकर वगैरह के बारे में मालूम हो.
ReplyDeleteजब हलचल न हो तो पानी में पत्थर मारो। सही काम है।
ReplyDeleteयुग विमर्श द्वारा की टिपण्णी से मैं सहमत हूँ कि इन ग्रंथों की उपयोगिता और उपादेयता दोनों ही हमेशा बनी रहेगी. जो शिक्षा इन ग्रंथों में दी गई है उसकी हर मनुष्य को आवश्यकता है. जिन मां-बाप ने इस शिक्षा को अपने जीवन में उतार लिया है वह अपने बच्चों को सही शिक्षा देंगे. जो यह नहीं कर सके उनके बच्चों के भटक जाने की सम्भावना होती है, और अक्सर कुछ गलत लोग उन्हें दिशा-भ्रमित कर देते हैं
ReplyDeleteहर्ष जी, शांत मन से विचार करें. उत्तेजित न हों. धर्म ग्रंथों को बुरा कहने से क्या बात बनेगी? मनुष्यों को जो पुस्तक सही लगती है उसे पढ़ें, उसे में दी गई शिक्षा के अनुसार आचरण करें.
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