इक मुनीज़ा हमारी बेटी है
जो बहुत ही प्यारी बेटी है
फूल की तरह उसकी रंगत है
चाँद की तरह उसकी सूरत है
जब वो ख़ुश हो कर मुस्काती है
चांदनी जग में फैल जाती है
उम्र देखो तो आठ साल की है
अक़्ल देखो तो साठ साल की है
वो गाना भी अच्छा गाती है
ग़रचे तुमको नहीं सुनाती है
बात करती है इस क़दर मीठी
जैसे डाली पे कूक बुलबुल की
हाँ जब कोई उसको सताता है
तब ज़रा ग़ुस्सा आ जाता है
पर वो जल्दी से मन जाती है
कब किसी को भला सताती है
है शिगुफ्ता बहुत मिज़ाज उसका
उम्दा है हर काम काज उसका
है मुनीज़ा की आज सालगिरह
हर सू शोर है मुबारक का
चाँद तारे दुआएं देते हैं
फूल उसकी बलायें लेते हैं
गा रही बाग़ में ये बुलबुल
“तुम सलामत रहो मुनीज़ा गुल”
फिर हो ये शोर मुबारक का
आये सौ बार तेरी सालगिरह
सौ क्या सौ हज़ार बार आये
यूँ कहो के बेशुमार आये
लाये अपने साथ ख़ुशी
और हम सब कहा करें यूँ ही
ये मुनीज़ा हमारी बेटी है
ये बहुत ही प्यारी बेटी है
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वात्सल्य में पोर-पोर डूबी फैज़ की बेहतरीन कविता .
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