Monday, May 26, 2008

A lovely शेर by Iqbal

काफ़िर कि ये पहचान की आफ़ाक़ में गुम है,

मोमिन कि ये पहचान की गुम उसमें है आफ़ाक़।

( काफ़िर - कर्मकांडी, आफ़ाक़ - पारंपरिक इश्वर , मोमिन - संत, ज्ञानी। )

पढ़िये और मज़ा लीजिये.

Tuesday, May 13, 2008

The great poet Faiz Ahmed 'Faiz' wrote this nazm on his younger daughter's birthday

इक मुनीज़ा हमारी बेटी है
जो बहुत ही प्यारी बेटी है


फूल की तरह उसकी रंगत है
चाँद की तरह उसकी सूरत है


जब वो ख़ुश हो कर मुस्काती है
चांदनी जग में फैल जाती है


उम्र देखो तो आठ साल की है
अक़्ल देखो तो साठ साल की है


वो गाना भी अच्छा गाती है
ग़रचे तुमको नहीं सुनाती है


बात करती है इस क़दर मीठी
जैसे डाली पे कूक बुलबुल की

हाँ जब कोई उसको सताता है
तब ज़रा ग़ुस्सा आ जाता है

पर वो जल्दी से मन जाती है
कब किसी को भला सताती है

है शिगुफ्ता बहुत मिज़ाज उसका
उम्दा है हर काम काज उसका

है मुनीज़ा की आज सालगिरह
हर सू शोर है मुबारक का

चाँद तारे दुआएं देते हैं
फूल उसकी बलायें लेते हैं

गा रही बाग़ में ये बुलबुल
“तुम सलामत रहो मुनीज़ा गुल”

फिर हो ये शोर मुबारक का
आये सौ बार तेरी सालगिरह

सौ क्या सौ हज़ार बार आये
यूँ कहो के बेशुमार आये

लाये अपने साथ ख़ुशी
और हम सब कहा करें यूँ ही

ये मुनीज़ा हमारी बेटी है
ये बहुत ही प्यारी बेटी है

Sunday, May 11, 2008

Inspired by a रुबाई of Tagore's Geetanjali - 'एई मॉलिन बॉस्त्रो छाड़ते हॉबे'

ये थकी थकी सी ख़ुदी, ये तार तार लिबास, इसे उतार तो लूँ. रोज़ की गर्द-ओ-तपिश में डूबा हुआ ये बदन, तर-ब-तर पसीने से भीगा हुआ पैराहन.
आफ़ताब डूब चला, अब कार-ए-रोज़गार तमाम,
शब-ए-विसाल का तवील इंतज़ार तमाम।
शाम ढलने लगी, खिलने लगी गुल-ए-शब की फ़स्ल,
धुला बदन, उजला पैराहन, हुई तक्मील तैय्यारी-ए-वस्ल.
और कुछ देर, इन्ही गुलों में सफ़बस्ता हो जाऊंगा,
पसमंज़र-ए- अफलाक़ से वाबस्ता हो जाऊंगा,
ज़रा ठहर, मेरे रफीक़, ज़रा ठहर....
ज़रा ठहर के गुज़श्ता लम्हात को पुकार तो लूँ,
आख़िरी दम अपने नग़्मात को संवार तो लूँ,
और अब वक्त कहाँ नग़्मा सराई का,
ये थकी थकी सी ख़ुदी, ये तार तार लिबास,
इसे उतार तो लूँ.

- हर्ष

January of 1993

Please don't waste your time here if you don't understand Urdu.,

Monday, May 5, 2008

महक गयी फिर नकहत-ए-नसीम-ए-सहर,

लतीफ़ परदों में आए हैं यूँ पयाम बहुत।

- हर्ष

जो नकहत-ए-सबा के हवाले से मिल गया,
हाँ! हाँ! उन्ही की ज़ुल्फ़-ए-परीशां का हाल था।

- हर्ष