Saturday, May 23, 2009

टिप्पणियों पर टिप्पणी

chhammakchhallo kahis Blog की एक प्रविष्टि 'हमारे देवी-देवताओं के जननेंद्रिय नहीं होते' पर की गयी टिप्पणियों पर एक टिपण्णी. मेरे प्रश्न श्री रजनीश परिहार और डॉ अनुराग जी की टिप्पणी से उपजे हैं। मुझे सच्चिदानंद जी के मौलिक काव्य ( जिस पर विभा जी ने बेहद सार्थक लेख लिखा है) के गुणों और अवगुणों से फि़लहाल कोई सरोकार नहीं। मैं पूछना चाहता हूँ कि.... क्या एक शिल्पकार के लिए अपनी कृति के प्रत्येक अंग एक समान नहीं होते?... क्या किसी शिल्प की जननेंद्रियाँ गढ़ते वक़्त उसकी मानसिकता बदल जाती है?... क्या वोह भी सृजन करते समय हम आलोचकों की तरह मानसिक रूप से सामाजिक अनुबंधनों से जकड़ा हुआ होता है?... क्या उसे भी अपनी कलात्मक व्याख्या को धार्मिक संकीर्णता की परिधि में सीमाबद्ध रखना चाहिए?... इन प्रश्नों को नकार कर हम विद्यापति के गीतों को जला क्यों नहीं देते?

1 comment:

  1. प्रभावोत्तेजक लेख.., कई सवालों को खड़ा करता है?, पक्ष और विपक्ष के लिए खूब तर्क हैं..

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