Monday, May 25, 2009

मेरी शंकाएँ

हममें से बहुतों के धर्म के स्रोत और उसकी उत्पत्ति के प्रति अपने अपने सिद्धांत और मत हैं। ये मत कहाँ से उत्पन्न हुए और मानव संस्कृति ने इन्हें क्यों ग्रहण कर लिया? कुछ तो है जो हमें इन धार्मिक धारणाओं से मिलता है, जैसे, ढाढ़स, आश्वासन, तसल्ली, धैर्य, दिलासा, आदि आदि। ये मान्यताएं अलग अलग गुटों में निजी भाईचारे और मैत्री को भी प्रखरता से दर्शाती हैं। अपने अस्तित्व में आने के कारण को जानने की उत्सुकता को भी ये धारणाएं संतुष्ट और शांत करती हैं। फिर भी मेरी कुछ पूर्ववर्ती शंकाएँ हैं... ऐसा क्यों हैं की आज तक कोई धार्मिक मान्यता विज्ञान की ओर देख कर इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँची कि ब्रह्माण्ड, जैसा हमारे ईश्वर्दूतों, पैग़मबरों ने सोचा था, वैज्ञानिक आधार पर उससे कहीं ज़्यादा विशाल, भव्य, गूढ़ और मनोहर है। पर नहीं.... हमारे इश्वर, अल्लाह जैसे थे वैसे ही रहेंगे...! और हम चाहते हैं कि वो वैसे ही रहें। ... ब्रह्माण्ड के कोनों में छिपे वैभव को उजागर करके उसका जितना सम्मान आधुनिक विज्ञान कर सकता है, हमारी पारंपरिक धार्मिक आस्थाओं की बंद आँखें हमें वहां पहुँचने तक नहीं देतीं ।

3 comments:

  1. जो भी धर्म हैं सब उस वकत की तराजू पर तो शायद उतर भी गये ,ग्यान और बुद्धि के धरातल पर फ़िसद्दी ही नहीन मोर्खतपूर्ण हैं .कोई शन्क न पलेन . बक्वस हैं धर्म पर शक्तिशली और खतर्नाक !

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  2. ईश्वर यदि हुआ तो वह किताबों और अब तक सोचे गए ईश्वर से बहुत बेहतरीन होगा। ईश्वर के बारे में सोच ज्ञान के साथ साथ बढ़ती है। क्यों?

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  3. धर्मग्रंथों में जो है वह उनके लिखे जाने के समय तक मनुष्य की कल्पना है विज्ञान मे और साहित्य मे मनुष्य की कल्पना पर कोई पूर्णविराम नही है इसलिये यह असीमित है.सच तो यह है कि जहाँ आस्था का क्षेत्र समाप्त होता है ज्ञान का क्षेत्र वहाँ से प्रारम्भ होता है.

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