Wednesday, October 29, 2008

कॉंग्रेस के राज्य में नेहरू का कबूतर

एक सफ़ेद कबूतर,
उसके दो पर,
एक इधर,
एक उधर।
दो व्यक्ति,
पहने हुए,
सफ़ेद धोती,
सफ़ेद कुर्ता,
सफ़ेद टोपी,
एक सफ़ेद कबूतर के इधर,
एक उधर,
नोचने को तैयार,
सफ़ेद कबूतर के पर।
अगली सुबह,
सफ़ेद कबूतर माँग रहा था प्राणों की भीख,
बेचारा चिल्लाय भी तो कैसे,
चिल्लाना शोभा नहीं देता उसे,
जो हो शांति का प्रतीक।

-हर्ष

Tuesday, October 28, 2008

हम और हमारा 'बुर्क़ा'

हिन्दुस्तान के विभाजन के वक़्त हिंदू मुस्लिम के बीच भड़के दंगों में दस लाख लोग मारे गये और पंद्रह लाख लोग बेघर हुए। मारने वालों और मरने वालों का सिर्फ़ एक कारण था - 'धर्म'। उन्हे विभाजित करने वालों के सिरों पर सिर्फ़ एक 'लेबल' था - 'धर्म'। क्या हम वाक़ई विवेकी, बुद्धिसंगत, युक्तिमूलक हैं? या बुर्क़ा ( Burqa - the narrow window of 'Light') जैसी चीज़ पहन कर, ख़ुद को अन्धकार में रखना चाहते हैं?

Wednesday, October 8, 2008

धर्म और Emerson

दुनिया के मुख़्तलिफ़ (विभिन्न) चिंतकों की मज़हब के मुत'अल्लिक़ (सम्बंधित) जो राय रही है, उसका हिन्दी तर्जुमा (अनुवाद) पिछले चंद दिनों से आपकी ख़िदमत में पेश करता आ रहा हूँ। उसी सिलसिले को जारी रखते हुए फिर पेश है उन्नीसवीं शताब्दी के अमरीकी लेखक, चिन्तक और कवि Emerson का एक ख़ूबसूरत ख़याल -

"The religion of one age is the literary entertainment of the next."

- Ralph Waldo Emerson
(1803-1882)

"किसी एक युग का धर्म, उसके आगामी युग के लिए साहित्यिक मनोरंजन (या 'मनोरंजक साहित्य') है।"

Emerson के इस जुमले (वाक्य) से मुत्तफ़्फ़िक़ (सहमत) होते हुए ये कहना चाहता हूँ कि हमें फ़ख्र है कि हमने आगामी युग के मनोरंजन के लिए भरपूर सामान इकट्ठा कर रखा है। आने वाली पुश्तों की अदबी (साहित्यिक) तफ़रीह के इस इन्तज़ाम के लिए हमें उन सभी किताबों का शुक्रगुज़ार होना चाहिए जिनकी 'न कोई शुरूआत है न आख़िर' ('आदि न अंत') या वो जो नाज़िल (आकाश से प्रकट) हो गयी हैं (ना मालूम कैसे) या वो जो किसी को बेरहमी से लकड़ी पर ठोंक देने के बाद उसके ज़िंदा हो जाने का मज़ाक़िया क़िस्सा बयाँ करती हो। इन किताबों के आगे बेचारे देवकी नंदन खत्री की 'भूतनाथ' भी पनाह मांगेगी। इन किताबों ने आज जो भी क़हर ढा रक्खा हो, हमें ख़ुश होना चाहिए कि कम से कम आगामी पुश्तों के लिए हम उनके हंसने का सामान तो सौंप रहे हैं।

Tuesday, October 7, 2008

धर्म और Shaw

कल मैनें १९५० के नोबेल पुरस्कार प्राप्त साहित्यकार और महान चिंतक बर्ट्रंन्ड रस्सेल के विचार अनूदित कर के आपके सामने रखे थे, आज १९२५ में साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित जॉर्ज बर्नार्ड शॉ के शब्द आपके सामने रख रहा हूँ।

"The fact that a believer is happier than a skeptic is no more to the point than the fact that a drunken man is happier than a sober one."

-George Bernard Shaw

"ये कहना कि धर्म में आस्था और विश्वास रखे वाला किसी संदेही (अविश्वासी या संशयी) से ज़्यादा ख़ुश है, ये कहना होगा जैसे कोई मद्यप (शराबी) किसी संयमी परहेज़गार से ज़्यादा ख़ुश है।"

Monday, October 6, 2008

सरज़मीन-ए-लखनऊ

कल एक ब्लॉग (http://www.anindianmuslim.com/) से तआ'रुफ़ाना सामना हुआ और लखनऊ की नामालूम कितनी पुरानी यादें ताज़ा हो गयीं। बेसाख़्ता कुछ कह डाला। हालाँकि ये Comment उनके ब्लॉग पर भी है, फिर भी आपसे बांटने का मोह रोक नहीं पा रहा हूँ। ज़रा रिक्शे वाले से हुई गुफ्तगू पर भी ग़ौर कीजियेगा। मुलाहिज़ा हो -

I have lot to say about my old good home Lucknow, one of the two cities where I spent my formative years. After 31 years, Colvin, Ganj, girls of IT College and Loretto (some of them are still good friends and one of them has even become a 'nani'), Restaurants like Simsons, Ranjana's, 'kulfi-faalooda' and 'chaat' joints of Aminabad continue to haunt me even now. Akhilesh Das, my class fellow in Colvin (now an MP), was a scoundrel even then, remains a scoundrel and will remain a scoundrel till his grave,which unfortunately in the current political scenario is not going to be very near in future, despite all our wishfull thinking. I miss Gomti,I miss Vintage Car rallies, I miss Sunday morning shows in Mayfair, I miss the conversation I used to have with 'rickshawalas' which went something like this -


"रिक्शे आले ('aale' not 'waale') , हज़रतगंज जाओगे?"...
"हाँ जाएँगे"..
"कितने पैसे लोगे?"...
"जो मुनासिब हो दे दीजिएगा"...
"तुम बताओ के कितने मुनासिब होते हैं"...
"वैसे तो पचहत्तर पैसे होते हैं!"...
"अमाँ छोड़ो, पचास में तो कल गये थे"...
"हनुमान सेतु पर चढ़ाई कितनी है"..
"छोड़ो, हम तांगा ले लेंगे"
" चलिए सत्तर दे दीजिएगा"...
"चलो!"

इस पाँच पैसे कम करवाने की क़वायद के क्या कहने।

I miss everything.

बैठे बैठे बस कुछ यूँ ही - धर्म, बुद्धिजीवी और कमाई

"अधिकाँश प्रतिष्ठित (इसाई) बुद्धिजीवी इसाईयत को नहीं मानते हैं, पर इस तथ्य को सार्वजनिक रूप से उजागर नहीं होने देते, क्योंकि उन्हें डर है कि उनकी आमदनी (कमाई) बंद हो जायेगी ।"

- बर्ट्रँड रस्सेल

"The immense majority of intellectually eminent men disbelieve in Christian religion, but they conceal the fact in public, because they are afraid of losing their incomes."

-
Bertrand Russell

क्या ये तथ्य मुस्लिम, हिंदू या किसी और धार्मिक बुद्धिजीवी पर सटीक नहीं बैठता?

Saturday, October 4, 2008

बद्तमीज़ी की इन्तिहा या ओहदे का गुमाँ

एक ब्लॉग 'क़ुन' http://namiraahmad.blogspot.com/ के आख्रीरी पोस्ट पर आप सबका तवज्जो चाहूंगा। उन्वान है 'ये तो बद्तमीज़ी की इन्तिहा है' मज़मून कुछ यों है-

"मध्य प्रदेश के सम्माननीय सांसद को रेलवे पुलिस के जवानों ने लहू लुहान कर दिया ! यह देख /सुन कर बहुत दुःख हुआ ! सांसद किसी भी दल के सदस्य हों उनका सम्मान जनता के प्रतिनिधि का सम्मान और उनकी बेइज्जती जनता की बेइज्जती है !
पुलिस कर्मी जनप्रतिनिधियों के साथ इस तरह का सलूक करते हैं तो साधारण जनता के प्रति उनके रवैये को बखूबी समझा जा सकता है !
लोकतान्त्रिक देश के नागरिक ( अदना ही सही ) की हैसियत से हमारा मानना है कि
ये तो बद्तमीजी की इन्तहा है !"

मेरी प्रतिक्रया -

"सांसद हों या आम जनता, किसी के साथ की गयी बदतमीज़ी मंज़ूर नहीं होनी चाहिए. लेकिन किसी भी सांसद का पुलिस से पिट जाना इसलिए बदतमीज़ी है क्योंकि वो सांसद है या जनता का नुमाइंदा है, किसी भी दलील से खरा नहीं उतरता. मेरा ख़्याल है कि अगर जनता भी कोई तहज़ीब का दायरा तोड़े तो उसके नुमाइंदे को ही ज़िम्मेदार ठहराना चाहिए. ऐसी बहुत सी मिसालें हमारे पास हैं और हम आए दिन देखते जा रहे हैं जहाँ ये नुमाइंदे आवाम को भड़का कर हमारा जीना हराम कर रहे हैं, और अपने सांसद या उसी जनता के बदौलत नेता होने का नाजायज़ फ़ायदा उठा रहे हैं. आपके चहेते सांसद क्यों पिट गये इससे मेरा कोई सरोकार नहीं, लेकिन उनके ओहदे की दुहाई न दें और अगर वो आम जनता की नुमाइंदगी कर रहे हैं, तो उन्हे ही पीटना जायज़ होगा."

Wednesday, October 1, 2008

अंधी आँखन सूझै नाहीं

एक रोज़ कुछ पढ़ते - पढ़ते सोचने लग गया। आप सभी से बाँटना चाहता हूँ।

मोको कहाँ ढूंढें रे बन्दे, मैं तो तेरे पास में।
न मैं देवल न मैं मस्जिद न काबे कैलास में।
न तो कौन क्रिया कर्म में, नहीं योग बैराग में।
खोजी होए तो तुरते मिलिहौं, पल भर की तालास में।


'ऐ बन्दे, तू मुझे कहाँ ढूंढता फिर रहा है, मैं तो तेरे पास ही हूँ। न मैं मन्दिर में मिलूंगा न मस्जिद में, न काबे न कैलाश में, न पूजा पाठ में न योग बैराग में। खोजने वाला हो तो मैं तो पल भर की तलाश में मिल जाऊंगा।'

- कबीर

तसव्वुफ़ की परम्परा में और उर्दू और फ़ारसी शायरी में इस ख़याल की मिसालें देखें :

ऐ तमाशागाहे-आलम रूए-तुस्त,
तू कुजा बहरे तमाशा मी रवी।


'सारी दुनिया तेरे चेहरे का तमाशा देखती है। तू ख़ुद कहाँ तमाशा देखने जा रहा है?'

तू कार-ए-ज़मीं रा निको साख़्ती,
कि बा-आस्मां नीज़
परदाख़्ती।

'क्या तूने ज़मीं का काम संवार लिया है जो आस्मां की तरफ़ उड़ान भर रहा है?'

- सादी

सादी तेरहवीं सदी के फ़ारसी के वो सूफ़ी शायर हैं जिनके एक बंद का अंग्रेजी तर्जुमा New York में UN बिल्डिंग के Hall Of Nations में दाख़िल होते वक़्त आपको दरवाज़े पर लिखा दिखाई देगा। मुलाहिज़ा हो :

Human beings are members of a whole,
In creation of one essence and soul.

If one member is afflicted with pain,
Other members uneasy will remain.

If you have no sympathy for human pain,
The name of human you cannot retain.

इसी बंद का तर्जुमा University of Minnesota के Dr. Iraj Bashiri कुछ यूँ करते हैं -

Of One Essence is the Human Race,
Thusly has Creation put the Base.

One Limb impacted is sufficient,
For all Others to feel the Mace.

The Unconcern'd with Others' plight,
Are but Brutes with Human Face.

हाफ़िज़ कहते हैं -

बाज़ मी गोयमो अज़ गुफ्तए-ख़ुद दिलशादम,
बन्दःए इश्क़-ओ-अज़ हर दो जहाँ आज़ादम ।


'मैं ये बात फिर दोहरा रहा हूँ और इस बात से खुश हूँ की मैं इश्क़ का गुलाम हूँ और दोनों जहाँ की पाबंदियों से आज़ाद हूँ’।'

अब ज़रा 'बेदिल' को सुनिए -

तु ज़े ग़ुँचा कम न दामीदई,
दर-ए-दिलकुशा ब-चमन दारा।

'तू तो ख़ुद एक खिलता हुआ फूल है। दिल के दरवाज़े को खोल कर अपने बाग़ में दाख़िल हो।'

अपने एक शेर की जुर्रत कर रहा हूँ। मुलाहिज़ा हो-

क्यों बाद-ए-बहारी का तुझे इंतज़ार हो,
ऐ ग़ुँचा दहन तुम तो सरापा बहार हो।

'खिलने के लिए तुझे वसंत समीर की प्रतीक्षा क्यों है कली, तुम तो सिर से पाँव तक स्वयं वसंत की प्रतिमूर्ती हो।'