Wednesday, October 1, 2008

अंधी आँखन सूझै नाहीं

एक रोज़ कुछ पढ़ते - पढ़ते सोचने लग गया। आप सभी से बाँटना चाहता हूँ।

मोको कहाँ ढूंढें रे बन्दे, मैं तो तेरे पास में।
न मैं देवल न मैं मस्जिद न काबे कैलास में।
न तो कौन क्रिया कर्म में, नहीं योग बैराग में।
खोजी होए तो तुरते मिलिहौं, पल भर की तालास में।


'ऐ बन्दे, तू मुझे कहाँ ढूंढता फिर रहा है, मैं तो तेरे पास ही हूँ। न मैं मन्दिर में मिलूंगा न मस्जिद में, न काबे न कैलाश में, न पूजा पाठ में न योग बैराग में। खोजने वाला हो तो मैं तो पल भर की तलाश में मिल जाऊंगा।'

- कबीर

तसव्वुफ़ की परम्परा में और उर्दू और फ़ारसी शायरी में इस ख़याल की मिसालें देखें :

ऐ तमाशागाहे-आलम रूए-तुस्त,
तू कुजा बहरे तमाशा मी रवी।


'सारी दुनिया तेरे चेहरे का तमाशा देखती है। तू ख़ुद कहाँ तमाशा देखने जा रहा है?'

तू कार-ए-ज़मीं रा निको साख़्ती,
कि बा-आस्मां नीज़
परदाख़्ती।

'क्या तूने ज़मीं का काम संवार लिया है जो आस्मां की तरफ़ उड़ान भर रहा है?'

- सादी

सादी तेरहवीं सदी के फ़ारसी के वो सूफ़ी शायर हैं जिनके एक बंद का अंग्रेजी तर्जुमा New York में UN बिल्डिंग के Hall Of Nations में दाख़िल होते वक़्त आपको दरवाज़े पर लिखा दिखाई देगा। मुलाहिज़ा हो :

Human beings are members of a whole,
In creation of one essence and soul.

If one member is afflicted with pain,
Other members uneasy will remain.

If you have no sympathy for human pain,
The name of human you cannot retain.

इसी बंद का तर्जुमा University of Minnesota के Dr. Iraj Bashiri कुछ यूँ करते हैं -

Of One Essence is the Human Race,
Thusly has Creation put the Base.

One Limb impacted is sufficient,
For all Others to feel the Mace.

The Unconcern'd with Others' plight,
Are but Brutes with Human Face.

हाफ़िज़ कहते हैं -

बाज़ मी गोयमो अज़ गुफ्तए-ख़ुद दिलशादम,
बन्दःए इश्क़-ओ-अज़ हर दो जहाँ आज़ादम ।


'मैं ये बात फिर दोहरा रहा हूँ और इस बात से खुश हूँ की मैं इश्क़ का गुलाम हूँ और दोनों जहाँ की पाबंदियों से आज़ाद हूँ’।'

अब ज़रा 'बेदिल' को सुनिए -

तु ज़े ग़ुँचा कम न दामीदई,
दर-ए-दिलकुशा ब-चमन दारा।

'तू तो ख़ुद एक खिलता हुआ फूल है। दिल के दरवाज़े को खोल कर अपने बाग़ में दाख़िल हो।'

अपने एक शेर की जुर्रत कर रहा हूँ। मुलाहिज़ा हो-

क्यों बाद-ए-बहारी का तुझे इंतज़ार हो,
ऐ ग़ुँचा दहन तुम तो सरापा बहार हो।

'खिलने के लिए तुझे वसंत समीर की प्रतीक्षा क्यों है कली, तुम तो सिर से पाँव तक स्वयं वसंत की प्रतिमूर्ती हो।'



4 comments:

  1. बहुत अच्छा लिखा है. मज़ा आ गया.

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  2. आप भी सोचेंगे किसे बुलाया और ये कौन आगया =आपने प्रदीप जी को बुलाया था और में बिन बुलाया मेहमान आगया =बोले आप कौन =कई खान्मुखां==खेर जब आही गया हूँ =पहली बात हर शेर पर यह लिख देते की यह अरबी है या फारसी है क्योंकि आख़िरी शेर तो उर्दू का है और समझ में भी आरहा है -दूसरी बात अंग्रेजी में लिखा हुआ वह किस शायरी का तर्जुमा है वह शायरी भी लिख देते क्योंकि जो चार लेने फारसी में लिखी है और उसके नीचे अंग्रेजी में लिखा है वह उक्त शायरी के अर्थ से भिन्न है /खैर /मेरी तो टांग अडाने की आदत है सो अडादी = आपका प्रयास अच्छा है /ख़ुद पढ़ते रहने से वेहतर है की दूसरों को भी पडाओ -शेयर करो =हम तो आपसे जुडेंगे /आप मेहनत करके किताबों में से छाँट कर यहाँ लिखेंगे हम को सीधा मसाला मिल जाएगा =हम भी कुछ अर्थ का अनर्थ करके लिख ही डाला करेंगे = कभी मौका मिले तो देखना बेतुकी कविताएं ,बेतुके लेख और भी कुछ अनर्गल

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  3. संग्रह सुन्दर है। इस पोस्ट पर दुबारा आया हूँ। कई बार टिपियाने का समय नहीं होता है।

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