अपने दर्द का कुछ हिस्सा आपकी खिदमत में पेश है -
न आसें टूटतीं अपनी, न जलता आशियाँ अपना,
न होता सैद-अफ़्गन गर ये ज़ालिम बाग़बां अपना।
न जाने कुफ्र-ओ-ईमां की कहाँ जाकर हदें छूटें,
चलो ढूँढें नया कोई अमीर-ए-कारवाँ अपना।
मज़ाक़-ए-काफिरी है अब, शगुफ्ता ज़िंदगी है अब,
कहाँ लाया है दानिस्ता, हमें दर्द-ए-निहां अपना।
मोअज़्ज़िन इक अज़ां पे खींच लाया भीड़ लोगों की,
यहाँ हम ढूंढते फिरते रहे इक हमज़बाँ अपना।
चमन में रंग-ओ-बू-ए-गुल ये क्या इतराते फिरते हैं,
चले आओ ज़रा लेकर जमाल-ए-बेकराँ अपना।
(सैद-अफ़्गन - शिकारी। बाग़बां - बाग़ का रखवाला, माली। कुफ्र-ओ-इमाँ - आस्तिकता और नास्तिकता , हदें छूटें - सीमाओं से बाहर आयें. अमीर-ए-कारवाँ - नेतृत्व करने वाला, कारवाँ की अगुवाई करने वाला। मज़ाक़-ए-काफिरी - नास्तिकता की ओर रुझान । शगुफ्ता - प्रफुल्लित। दानिस्ता - समझ बूझ कर । दर्द-ए-निहां - आन्तरिक पीड़ा। मोअज़्ज़िन - मस्जिद में अजां देने वाला जिसे सुन कर लोग नमाज़ पढ़ने आते हैं। हमज़बाँ - अपनी भाषा समझने वाला। रंग-ओ-बू-ए-गुल - फूलों के अलग अलग रंग और खु़शबू। जमाल-ए-बेकराँ - निस्सीम सौंदर्य )
इस ग़ज़ल का पहला शेर गोधरा काण्ड के वक़्त जनाब नरेन्द्र मोदी की नज़र था जो उस सन्दर्भ में समझा जा सकता है। अपने अन्तिम शेर की प्रेरणा मुझे डॉ राधाकृष्णन के एक लेख से मिली थी, लेकिन वो फिर कभी....
- हर्ष
न आसें टूटतीं अपनी, न जलता आशियाँ अपना,
ReplyDeleteन होता सैद-अफ़्गन गर ये ज़ालिम बाग़बां अपना।
गज़ब का शेर है ज़नाब मज़ा आ गया समय निकाले और मेरे ब्लॉग पर पुन: दस्तक दें