अपने दो अशआर की ज़हमत दे रहा हूँ, मुलाहिज़ा हो -
वसी-उल-क़ल्ब ही जाने है क्या राज़े-निहां इसका,
हरम में कौन बसता है ठिकाना दैर है किसका।
ज़रा ये फ़र्क़ देखो अहल-ए-ज़ाहिर और बातिन में,
सज़ा-ए-मौत जो उसकी, उरूसी जश्न है इसका ।
- हर्ष
Tuesday, September 23, 2008
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वसी-उल-क़ल्ब ही जाने है क्या राज़े-निहां इसका,
ReplyDeleteहरम में कौन बसता है ठिकाना दैर है किसका।
bahut sunder
Bahut khoob .. waah !
ReplyDeleteबहुत बढिया.
ReplyDeleteएक अच्छी गजल पढ़वाने के लिए धन्यवाद
ReplyDeleteवीनस केसरी