Tuesday, September 23, 2008

दैर-ओ-हरम

अपने दो अशआर की ज़हमत दे रहा हूँ, मुलाहिज़ा हो -


वसी-उल-क़ल्ब ही जाने है क्या राज़े-निहां इसका,

हरम में कौन बसता है ठिकाना दैर है किसका।



ज़रा ये फ़र्क़ देखो अहल-ए-ज़ाहिर और बातिन में,

सज़ा-ए-मौत जो उसकी, उरूसी जश्न है इसका ।

- हर्ष

4 comments:

  1. वसी-उल-क़ल्ब ही जाने है क्या राज़े-निहां इसका,

    हरम में कौन बसता है ठिकाना दैर है किसका।
    bahut sunder

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  2. एक अच्छी गजल पढ़वाने के लिए धन्यवाद
    वीनस केसरी

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