Wednesday, September 24, 2008

शैख़-ओ-पंडित ने भी क्या अहमक़ बनाया है हमें

'जोश' की क़लम से -

'दीन-ए-आदमीयत'

ये मुसलमाँ है, वो हिन्दू, ये मसीही, वो यहूद
इस पे ये पाबन्दियाँ हैं, और उस पर ये क़यूद
( पाबन्दियाँ, क़यूद - बंधन)

शैख़-ओ-पंडित ने भी क्या अहमक़ बनाया है हमें
छोटे छोटे तंग ख्नानों में बिठाया है हमें

क़स्र-ए-इन्सानी पे ज़ुल्म-ओ-जहल बरसाती हुई
झंडियाँ कितनी नज़र आती हैं लहराती हुई
(क़स्र-ए-इन्सानी - मानवता के महलों पर , ज़ुल्म-ओ-जहल - अत्याचार और मूढ़ता )

कोई इस ज़ुल्मत में सूरत ही नहीं है नूर की
मुहर हर दिल पे लगी है इक-न-इक दस्तूर की
(ज़ुल्मत - अँधेरा , नूर -प्रकाश, दस्तूर - जातीय या धर्म संबन्धी रिवाज)

घटते-घटते मेह्रे-आलमताब से तारा हुआ
आदमी है मज़हब-ओ-तहज़ीब का मारा हुआ
(मेह्रे-आलमताब - दुनियाँ को प्रकाशमान करने वाला , मज़हब-ओ-तहज़ीब - धार्मिक रीति रिवाजों )

कुछ तमद्दुन के ख़लफ़, कुछ दीन के फ़र्ज़न्द हैं
कुलज़मों के रहने वाले, बुलबुलों में बंद हैं
(तमद्दुन - संस्कृति। ख़लफ़ - संतान, औलाद। दीन - धर्म। फ़र्ज़न्द - पुत्र, बेटे। कुलज़मों - समुद्रों)

क़ाबिल-ए-इबरत है ये महदूदियत इंसान की
चिट्ठियाँ चिपकी हुई हैं मुख़्तलिफ़ अदयान की
(क़ाबिल-ए-इबरत - सीखने योग्य, महदूदियत - संकीर्णता, मुख़्तलिफ़ - भिन्न भिन्न, अदयान - मज़हबों की )

फिर रहा है आदमी भूला हुआ भटका हुआ
इक-न-इक लेबिल हर इक के माथे पे है लटका हुआ

आख़िर इन्साँ तंग साँचों में ढला जाता है क्यों
आदमी कहते हुए अपने को शर्माता है क्यों

क्या करे हिन्दोस्ताँ, अल्लाह की है ये भी देन
चाय हिंदू, दूध मुस्लिम, नारियल सिख, बेर जैन

अपने हमजिन्सों के कीने से भला क्या फ़ायदा
टुकड़े-टुकड़े हो के जीने से भला क्या फ़ायदा
(हमजिन्सों - साथी मनुष्यों, कीने - द्वेष )

- शबीर हसन खां 'जोश मलीहाबादी'


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